आचार्य श्रीराम शर्मा >> व्यक्तित्व परिष्कार की साधना व्यक्तित्व परिष्कार की साधनाश्रीराम शर्मा आचार्य
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प्रस्तुत हैं व्यक्तित्व परिष्कार की साधना....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नौ दिवसीय साधना सत्रों का दर्शन दिग्दर्शन एवं मार्गदर्शन
मनुष्य शरीर परमात्मा का सर्वोपरि अनुग्रह माना गया है, पर यह उस खजाने की
तरह है, जो गड़ा तो अपने घर में हो, पर जानकारी रत्ती भर न हो। यदि किसी
के मन में अध्यात्म साधनाओं के प्रति श्रद्धा और जिज्ञासा का अंकुर फूट
पड़े, तो उस परमात्मा के छिपे खजाने की जानकारी दे देने जैसा प्रत्यक्ष
वरदान समझना चाहिए। ऐसे अवसर जीवन में बड़े सौभाग्य से आते हैं। इस
पुस्तिका को आप अपने लिए परम पूज्य गुरुदेव का ‘परा
संदेश’’ समझकर पढ़ें और निष्ठापूर्वक अनुपालन करें।
व्यक्तिगत रूप से साधनायें अन्तःकरण की प्रसुप्त शक्तियों का जागरण करती हैं। उनका जागरण जिस अभ्यास से होता है, उसे साधना-विज्ञान कहते हैं। इस क्षेत्र में जितना आगे बढ़ा जाये, उतने दुर्लभ मणिमुक्तक करतलगत होते चले जाते हैं। पर इस तरह की साधनायें समय-साध्य भी होती है, तितीक्षा साध्य भी। परम पू. गुरुदेव ने आत्म शक्ति से उनका ऐसा सरल स्वरूप विनिर्मित कर दिया है, जो बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी के लिए सरल और सुलभ है, लाभ की दृष्टि से भी ये अभ्यास असाधारण है।
आज समाज को प्रतिभा सम्पन्नों की आवश्यकता है। अगले दिनों लोक नेतृत्व भी वही सम्हालेंगे। यह व्यक्तित्व आयें कहां से ? यह एक बड़ा प्रश्न था। स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर चुके थे। भारतीय संस्कृति की प्रामाणिकता भी उन्होंने प्रतिष्ठित कर दी थी, पर वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में प्रायः उदास रहते थे। एक दिन उनके गुरुभाई स्वामी प्रेमानन्द ने प्रश्न किया-स्वामी जी ! आपके मन में कहीं कोई पीड़ा है—स्वामी जी ने बताया कि— सब काम हो गया पर, प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों का उत्पादन नहीं हो पाया—यही मेरे दुःख का कारण है। जीवन के अन्तिम समय में परम पू. गुरुदेव का भी यही सलंकल्प व्यक्त हुआ। एक लाख प्रतिभा सम्पन्न आत्माओं का उत्पादन और उनका युग परिवर्तन कार्य में नियोजन-सतयुग की वापसी की अनुवार्य शर्त थी। परम पू. गुरुदेव न उनके लिए शान्तिकुञ्ज आरण्यक की स्थापना की और उन साधनाओं का मार्गदर्शन किया, जिससे व्यक्तित्व ढलेंगे। प्रस्तुत पुस्तिका जिन हाथों में पहुँचेगी, उन्हें अपने आपको खान से प्रयत्नपूर्वक निकाले गये, काले-कुरूप हीरे-जवाहरात समझना चाहिए, जो इस नौ दिवसीय साधना-अनुष्ठान की मशीन में तराशे जाने के लिए तैयार हुए, तो एक से बढ़कर विवेकानन्द जैसे बनकर निकलेंगे।
परम पू. गुरुदेव ने समय पर घोषित किया है कि शान्तिकुञ्ज का विकास नवयुग की गंगोत्री में किया गया है। यहाँ से परिष्कृत प्रतिभाओं के निर्माण-निखार का कार्य व्यापक स्तर पर चलेगा। इस नव निर्माण प्रक्रिया में अध्यात्मिक साधना विज्ञान की विशेष भूमिका होगी। विश्वव्यापी समस्याओं के समाधान खोजने योग्य प्रखर विवेक एवं प्रचंण्ड पुरुषार्थ, साधना प्रक्रिया द्वारा ही जागेगा। अवाञ्छनीयता के निवारण और श्रेष्ठ वातावरण के निर्माण कारक दैवी प्रवाह और साधना पुरुषार्थ का संयोग ही सफलता प्राप्त कर सकेगा। इन दिनों राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति इतनी विस्फोटक हो गयी है कि जरा सी असावधानी से सर्वनाश जैसा दृश्य उपस्थित हो सकता है। बढ़ते हुए अहंकार तथा आयुधों के भंडार कभी भी भयानक युद्ध में मनुष्यता को झोंक सकते हैं। वैज्ञानिक बढ़ते प्रदूषण की समस्या से चिंतित हों। धरती के रक्षाकवच ओजोन का परत का क्षीण होना, तापक्रम में होती बृद्धि, बिगड़ता पर्यावरण संतुलन—ये कभी भी प्रकृति के प्रकोपों का विस्फोट कर सकते हैं। उस स्थिति में विज्ञान असहाय की तरह देखता भी रह जायेगा। समाजशास्त्री बढ़ती जनसंख्या तथा अपराधवृत्ति के कारण चिन्तित हैं। अभी भी उसकी प्रतिक्रियाएँ सम्हलती नहीं दिखतीं, और बढ़ जायेगी, तब क्या होगा ?
इन सब स्थितियों को देखकर विनाश ही निकट दिखाई देता है; किन्तु पूज्य गुरुदेव का कथन है कि स्रष्टा इस सुन्दर सृष्टा को नष्ट होने नहीं देना चाहता। मनुष्य की शक्ति के परे समस्या हो जाने के कारण वह सीधे ही हस्तक्षेप करेगा। मनुष्य को अविवेकपूर्ण रवैया अपनाने का दण्ड तो कुछ न कुछ मिलेगा ही, किन्तु कोई शक्ति मनुष्यता के उज्ज्वल भविष्य की ओर खींचकर ले जाएगी। ऐसे ही कथन दिव्य दृष्टि सम्पन्न भविष्य द्रष्टाओं के भी हैं। फ्रांस के नेस्ट्राडेमस, महात्मा सूरदास, प्रोफेसर कीरो, जीन डिक्सन आदि ने भी प्रकारान्तर से ऐसे ही संकेत दिए हैं।
युग सन्धिकाल में दिव्य अनुदान उदारतापूर्व बांटे जाते हैं। अध्यात्म विज्ञान दिव्य चेतना से आदान-प्रदान का ही विज्ञान है। साधनाओं द्वारा अपने पुरुषार्थ से भी ऋद्धि—सिद्धियाँ, स्वर्ग, जीवन-मुक्ति जैसे लाभ कमाये जा सकते हैं। वशिष्ठ के पास कामधेनु-नन्दिनी होने तथा दिव्य अस्त्रों को ब्रह्मदण्ड से परास्त करने के चमत्कार सर्वविदित हैं। विश्वामित्र द्वारा नयी सृष्टि निर्माण की शक्ति अर्जित करना, अगस्त्य द्वारा समुद्र सोखना, भारपद्वाज द्वारा सारी अयोध्या का आतिथ्य करना-साधना की सिद्धियों के ही परिणाम थे।
उन दिनों जैसी कठोर दीर्घकालीन साधनाएँ आज सम्भव नहीं है :किन्तु युगऋषि ने अपने जीवन की प्रयोगशाला में, करने में सुगन और प्रभाव की दृष्टि से असाधारण साधनाएँ विकसित की हैं। उनका स्वयं का जीवन इसका प्रमाण रहा है। फिर इन दिनों साधनापुरुषार्थ के साथ दो और भी महत्त्वपूर्ण पक्ष जुड़े हैं—युगसन्धि के अवसर पर अधिक उदारतापूर्वक प्राप्त होने वाले दिव्य अनुदान तथा दूसरा है नवयुग की गंगोत्री शांन्तिकुञ्ज के विशिष्ट प्राणवान् वातावरण का योगदान। इनके कारण सही प्रकार किया हुआ थोड़ा सा साधना-पुरुषार्थ भी असामान्य लाभ प्रदान करता है।
उपयुक्त साधनाओं के साथ उपयुक्त वातावरण का भी महत्त्व सामान्य नहीं है। प्राचीन ऋषियों से लेकर गुरुनानक, गुरुगोविन्दसिंह, ऋषि दयानन्द आदि सभी ने हिमालय के प्राणवान् क्षेत्र में साधनाएँ करके ही प्रखर आत्मबल एवं शक्तियों का संचय किया था। गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को देवप्रयाग, भरत को ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला तथा शत्रुघ्न को मुनि की रेती में रहकर तप करने के निर्देश दिये थे। भगवान कृष्ण ने बदरी नाथ क्षेत्र में रहकर तप साधना की थी।
शान्तिकुञ्ज पवित्र सप्तऋषि क्षेत्र में स्थिति है। इस स्थान पर विश्वामित्र जी ने नये सृजन के लिए प्रचण्ड तप किया था। पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी ने उसे अपने तप से जीवन्त करके नवयुग की गंगोत्री के स्तर पर ला दिया है। ऐसे जागृत तीर्थ में की हुई साधना निश्चित रूप से अन्यत्र की गयी साधना की अपेक्षा अनेक गुनी प्रभावशाली होती है।
‘‘साधना से सिद्धि’’ का सूत्र सर्वविदित है। मनुष्य के अंतराल में दिव्य शक्तियों के भण्डार छिपे हुए हैं। मूलाधार से सहस्र तक फैले इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना तथा चक्रों के तंत्र को जागृत झंकृत करने में साधना विज्ञान ही सक्षम है। मस्तिष्क जादू की पिटारी है। उसका केवल 7 से 14 प्रतिशत भाग सक्रिय रहता है। उसके प्रसुप्त अंश को जागृत करके, उसके माध्यम से हब्रह्माण्डीय शक्तियों से आदान-प्रदान संभव है। साधनाएँ दिव्यता धारण करने की पात्रता बढ़ाती हैं। युगसंधि के संदर्भ में मुक्तहस्त से बाटी जाने वाली क्षमताओं को ग्रहण धारण एवं प्रयुक्त करने की क्षमता का विकास साधनाओं के सहारे ही किया जा सकता है। इस प्रकार अनायास ही असाधारण श्रेय-सौभाग्य के द्वार खुले संभव हैं।
शान्तिकुञ्ज के साधना सत्रों की उपयोगिता उक्त दृष्टियों से असामान्य है। यह पंक्तियाँ साधकों तक पहुँचाने का उद्देश्य यही है कि वे उपयुक्त मनोभूमि और अभ्यास लेकर पहुँच सकें। इससे साधना में प्रतिष्ठित होकर उनका भरपूर लाभ उठाना संभव हो सकेगा। युग ऋषि ने दुरूह साधनाओं को सुगम तथा प्रभावशाली बना दिया है, किन्तु उन्हें सही ढंग से, निर्धारित अनुशासनों सहित तो करना ही होगा। थोड़ी सी मनोयोग युक्त तत्परता बरतने से ही साधक दिव्य अनुदानों की उस दुर्लभ धारा से जुड़ सकते हैं, जो कभी-कभी ऐसे विशिष्ट अवसरों पर ही खुलती है।
शान्तिकुञ्ज बर्तन पकाने के ऑवे की तरह है, जहाँ श्रेष्ट और प्रखर प्रतिभा-संपन्न व्यक्तित्व ढाले जाते हैं। ऑवे से बाहर छिटक जाने वाले बर्तन कच्चे रह जाते हैं। माँ के पेट में बैठे बालक को प्रकृति जीवन के सभी आवश्यक तत्त्व और उपादान बिना माँगे प्रदान करती है। शांतिकुञ्ज साधना अनुष्ठान के 9 दिन, 9 माह की गर्भावस्था है। उस स्थिति को पार कर लेने पर जीवन का आनंद और संसार भर का प्यार और सहयोग मिलने के समान अभूतपूर्व लाभ करतलगत होते हैं। आशा की जानी चाहिए आप इस अनुष्ठान से लौटने पर अपने भीतर एक प्रखर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व का जन्म हुआ अनुभव करेंगे। उसके बदले सारे संसार का सम्मान आपको मिले, तो इसे नितान्त सहज और स्वाभाविक मानें। आत्मिक लाभों का अनुभव तो गूंगे के गुड़ की तरह अनिर्वचनीय अनुभव करेंगे ही।
व्यक्तिगत रूप से साधनायें अन्तःकरण की प्रसुप्त शक्तियों का जागरण करती हैं। उनका जागरण जिस अभ्यास से होता है, उसे साधना-विज्ञान कहते हैं। इस क्षेत्र में जितना आगे बढ़ा जाये, उतने दुर्लभ मणिमुक्तक करतलगत होते चले जाते हैं। पर इस तरह की साधनायें समय-साध्य भी होती है, तितीक्षा साध्य भी। परम पू. गुरुदेव ने आत्म शक्ति से उनका ऐसा सरल स्वरूप विनिर्मित कर दिया है, जो बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी के लिए सरल और सुलभ है, लाभ की दृष्टि से भी ये अभ्यास असाधारण है।
आज समाज को प्रतिभा सम्पन्नों की आवश्यकता है। अगले दिनों लोक नेतृत्व भी वही सम्हालेंगे। यह व्यक्तित्व आयें कहां से ? यह एक बड़ा प्रश्न था। स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर चुके थे। भारतीय संस्कृति की प्रामाणिकता भी उन्होंने प्रतिष्ठित कर दी थी, पर वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में प्रायः उदास रहते थे। एक दिन उनके गुरुभाई स्वामी प्रेमानन्द ने प्रश्न किया-स्वामी जी ! आपके मन में कहीं कोई पीड़ा है—स्वामी जी ने बताया कि— सब काम हो गया पर, प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों का उत्पादन नहीं हो पाया—यही मेरे दुःख का कारण है। जीवन के अन्तिम समय में परम पू. गुरुदेव का भी यही सलंकल्प व्यक्त हुआ। एक लाख प्रतिभा सम्पन्न आत्माओं का उत्पादन और उनका युग परिवर्तन कार्य में नियोजन-सतयुग की वापसी की अनुवार्य शर्त थी। परम पू. गुरुदेव न उनके लिए शान्तिकुञ्ज आरण्यक की स्थापना की और उन साधनाओं का मार्गदर्शन किया, जिससे व्यक्तित्व ढलेंगे। प्रस्तुत पुस्तिका जिन हाथों में पहुँचेगी, उन्हें अपने आपको खान से प्रयत्नपूर्वक निकाले गये, काले-कुरूप हीरे-जवाहरात समझना चाहिए, जो इस नौ दिवसीय साधना-अनुष्ठान की मशीन में तराशे जाने के लिए तैयार हुए, तो एक से बढ़कर विवेकानन्द जैसे बनकर निकलेंगे।
परम पू. गुरुदेव ने समय पर घोषित किया है कि शान्तिकुञ्ज का विकास नवयुग की गंगोत्री में किया गया है। यहाँ से परिष्कृत प्रतिभाओं के निर्माण-निखार का कार्य व्यापक स्तर पर चलेगा। इस नव निर्माण प्रक्रिया में अध्यात्मिक साधना विज्ञान की विशेष भूमिका होगी। विश्वव्यापी समस्याओं के समाधान खोजने योग्य प्रखर विवेक एवं प्रचंण्ड पुरुषार्थ, साधना प्रक्रिया द्वारा ही जागेगा। अवाञ्छनीयता के निवारण और श्रेष्ठ वातावरण के निर्माण कारक दैवी प्रवाह और साधना पुरुषार्थ का संयोग ही सफलता प्राप्त कर सकेगा। इन दिनों राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति इतनी विस्फोटक हो गयी है कि जरा सी असावधानी से सर्वनाश जैसा दृश्य उपस्थित हो सकता है। बढ़ते हुए अहंकार तथा आयुधों के भंडार कभी भी भयानक युद्ध में मनुष्यता को झोंक सकते हैं। वैज्ञानिक बढ़ते प्रदूषण की समस्या से चिंतित हों। धरती के रक्षाकवच ओजोन का परत का क्षीण होना, तापक्रम में होती बृद्धि, बिगड़ता पर्यावरण संतुलन—ये कभी भी प्रकृति के प्रकोपों का विस्फोट कर सकते हैं। उस स्थिति में विज्ञान असहाय की तरह देखता भी रह जायेगा। समाजशास्त्री बढ़ती जनसंख्या तथा अपराधवृत्ति के कारण चिन्तित हैं। अभी भी उसकी प्रतिक्रियाएँ सम्हलती नहीं दिखतीं, और बढ़ जायेगी, तब क्या होगा ?
इन सब स्थितियों को देखकर विनाश ही निकट दिखाई देता है; किन्तु पूज्य गुरुदेव का कथन है कि स्रष्टा इस सुन्दर सृष्टा को नष्ट होने नहीं देना चाहता। मनुष्य की शक्ति के परे समस्या हो जाने के कारण वह सीधे ही हस्तक्षेप करेगा। मनुष्य को अविवेकपूर्ण रवैया अपनाने का दण्ड तो कुछ न कुछ मिलेगा ही, किन्तु कोई शक्ति मनुष्यता के उज्ज्वल भविष्य की ओर खींचकर ले जाएगी। ऐसे ही कथन दिव्य दृष्टि सम्पन्न भविष्य द्रष्टाओं के भी हैं। फ्रांस के नेस्ट्राडेमस, महात्मा सूरदास, प्रोफेसर कीरो, जीन डिक्सन आदि ने भी प्रकारान्तर से ऐसे ही संकेत दिए हैं।
युग सन्धिकाल में दिव्य अनुदान उदारतापूर्व बांटे जाते हैं। अध्यात्म विज्ञान दिव्य चेतना से आदान-प्रदान का ही विज्ञान है। साधनाओं द्वारा अपने पुरुषार्थ से भी ऋद्धि—सिद्धियाँ, स्वर्ग, जीवन-मुक्ति जैसे लाभ कमाये जा सकते हैं। वशिष्ठ के पास कामधेनु-नन्दिनी होने तथा दिव्य अस्त्रों को ब्रह्मदण्ड से परास्त करने के चमत्कार सर्वविदित हैं। विश्वामित्र द्वारा नयी सृष्टि निर्माण की शक्ति अर्जित करना, अगस्त्य द्वारा समुद्र सोखना, भारपद्वाज द्वारा सारी अयोध्या का आतिथ्य करना-साधना की सिद्धियों के ही परिणाम थे।
उन दिनों जैसी कठोर दीर्घकालीन साधनाएँ आज सम्भव नहीं है :किन्तु युगऋषि ने अपने जीवन की प्रयोगशाला में, करने में सुगन और प्रभाव की दृष्टि से असाधारण साधनाएँ विकसित की हैं। उनका स्वयं का जीवन इसका प्रमाण रहा है। फिर इन दिनों साधनापुरुषार्थ के साथ दो और भी महत्त्वपूर्ण पक्ष जुड़े हैं—युगसन्धि के अवसर पर अधिक उदारतापूर्वक प्राप्त होने वाले दिव्य अनुदान तथा दूसरा है नवयुग की गंगोत्री शांन्तिकुञ्ज के विशिष्ट प्राणवान् वातावरण का योगदान। इनके कारण सही प्रकार किया हुआ थोड़ा सा साधना-पुरुषार्थ भी असामान्य लाभ प्रदान करता है।
उपयुक्त साधनाओं के साथ उपयुक्त वातावरण का भी महत्त्व सामान्य नहीं है। प्राचीन ऋषियों से लेकर गुरुनानक, गुरुगोविन्दसिंह, ऋषि दयानन्द आदि सभी ने हिमालय के प्राणवान् क्षेत्र में साधनाएँ करके ही प्रखर आत्मबल एवं शक्तियों का संचय किया था। गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को देवप्रयाग, भरत को ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला तथा शत्रुघ्न को मुनि की रेती में रहकर तप करने के निर्देश दिये थे। भगवान कृष्ण ने बदरी नाथ क्षेत्र में रहकर तप साधना की थी।
शान्तिकुञ्ज पवित्र सप्तऋषि क्षेत्र में स्थिति है। इस स्थान पर विश्वामित्र जी ने नये सृजन के लिए प्रचण्ड तप किया था। पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी ने उसे अपने तप से जीवन्त करके नवयुग की गंगोत्री के स्तर पर ला दिया है। ऐसे जागृत तीर्थ में की हुई साधना निश्चित रूप से अन्यत्र की गयी साधना की अपेक्षा अनेक गुनी प्रभावशाली होती है।
‘‘साधना से सिद्धि’’ का सूत्र सर्वविदित है। मनुष्य के अंतराल में दिव्य शक्तियों के भण्डार छिपे हुए हैं। मूलाधार से सहस्र तक फैले इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना तथा चक्रों के तंत्र को जागृत झंकृत करने में साधना विज्ञान ही सक्षम है। मस्तिष्क जादू की पिटारी है। उसका केवल 7 से 14 प्रतिशत भाग सक्रिय रहता है। उसके प्रसुप्त अंश को जागृत करके, उसके माध्यम से हब्रह्माण्डीय शक्तियों से आदान-प्रदान संभव है। साधनाएँ दिव्यता धारण करने की पात्रता बढ़ाती हैं। युगसंधि के संदर्भ में मुक्तहस्त से बाटी जाने वाली क्षमताओं को ग्रहण धारण एवं प्रयुक्त करने की क्षमता का विकास साधनाओं के सहारे ही किया जा सकता है। इस प्रकार अनायास ही असाधारण श्रेय-सौभाग्य के द्वार खुले संभव हैं।
शान्तिकुञ्ज के साधना सत्रों की उपयोगिता उक्त दृष्टियों से असामान्य है। यह पंक्तियाँ साधकों तक पहुँचाने का उद्देश्य यही है कि वे उपयुक्त मनोभूमि और अभ्यास लेकर पहुँच सकें। इससे साधना में प्रतिष्ठित होकर उनका भरपूर लाभ उठाना संभव हो सकेगा। युग ऋषि ने दुरूह साधनाओं को सुगम तथा प्रभावशाली बना दिया है, किन्तु उन्हें सही ढंग से, निर्धारित अनुशासनों सहित तो करना ही होगा। थोड़ी सी मनोयोग युक्त तत्परता बरतने से ही साधक दिव्य अनुदानों की उस दुर्लभ धारा से जुड़ सकते हैं, जो कभी-कभी ऐसे विशिष्ट अवसरों पर ही खुलती है।
शान्तिकुञ्ज बर्तन पकाने के ऑवे की तरह है, जहाँ श्रेष्ट और प्रखर प्रतिभा-संपन्न व्यक्तित्व ढाले जाते हैं। ऑवे से बाहर छिटक जाने वाले बर्तन कच्चे रह जाते हैं। माँ के पेट में बैठे बालक को प्रकृति जीवन के सभी आवश्यक तत्त्व और उपादान बिना माँगे प्रदान करती है। शांतिकुञ्ज साधना अनुष्ठान के 9 दिन, 9 माह की गर्भावस्था है। उस स्थिति को पार कर लेने पर जीवन का आनंद और संसार भर का प्यार और सहयोग मिलने के समान अभूतपूर्व लाभ करतलगत होते हैं। आशा की जानी चाहिए आप इस अनुष्ठान से लौटने पर अपने भीतर एक प्रखर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व का जन्म हुआ अनुभव करेंगे। उसके बदले सारे संसार का सम्मान आपको मिले, तो इसे नितान्त सहज और स्वाभाविक मानें। आत्मिक लाभों का अनुभव तो गूंगे के गुड़ की तरह अनिर्वचनीय अनुभव करेंगे ही।
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